AHSEC Class 12 Hindi (Mil) Notes
☆CHAPTER: 13☆
चार्ली चैप्लिन यानी हम सब
Chapter – 13
काव्य खंड
लेखक परिचय: विष्णु खरे का जन्म सन् 1940 ई. में मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा नामक स्थान में हुआ था। समकालीन हिंदी कविता और आलोचना में विष्णु खरे का विशिष्ट स्थान है। उन्होंने हिंदी साहित्य जगत को अत्यंत गहरी विचारपरक कविताओं के साथ बेबाक आलोचानत्मक लेख भी दिए। उनके रचनात्मक और आलोचनात्मक लेखन में विश्व साहित्य का गहन देखने को मिलता है। विष्णु खेर विश्व सिनेमा के गहरे जानकार है, और उन्होंने इस विद्या पर कई गंभीर लेखन किया है। सन 1971-73 में चेकोस्लोविया की राजधानी प्राग गए थे, जहां प्रतिष्ठित फिल्म क्लब की सदस्यता प्राप्त कर संसार भर की सैकड़ों उत्कृष्ट फिल्में देखने का मौका मिला। उन्होंने ‘दिनमान’ नवभारत टाइम्स, ‘दि पायोनियर’ दि हिंदुस्तान, जनसत्ता, दैनिक भास्कर, ‘हंस’ कथादेश, जैसी पत्र-पत्रिकाओं में सिनेमा विषयक लेखन प्रकाशित होता रहा। विष्णु खरे ने अपने लेखन द्वारा भारतीय सिनेमा के महत्व और शास्त्रीयता को दिखाने की कोशिश की है, क्योंकि अभी भी हमारे समाज में सिनेमा जाने को एक हल्के अपराध की तरह देखा जाता है। विष्णु खरे को कई सम्मानों से सम्मानित किया गया है, जिनमें रघुवीर सहाय सम्मान, हिंदी अकादमी (दिल्ली) का सम्मान, शिखर सम्मान, मैथलीशरण गुप्त सम्मान, फिनलैंड का राष्ट्रीय सम्मान नाइट ऑफ दि ऑर्डर ऑफ दि व्याइट रोज आदि।
प्रमुख रचनाएँ:
कविता संग्रह: एक गैर रूमानी समय में, खुद अपनी आँख से, सबकी आवाज़ के पर्दे में, पिछला बाकी।
आलोचना: आलोचना की पहली किताब।
सिने आलोचना : सिनेमा पढ़ने के तरीके।
अनुवाद: मरु प्रदेश और अन्य कविताएँ (टी.एस इलियट)
यह चाकू समय (अतिंला योझेफ)
कालेवाला (फिनलैंड का राष्ट्रकाव्य)
साराशं
हास्य फिल्मों के महान अभिनेता और निर्देशक चाली चैप्लिन पर लिखे गए इस पाठ में | लेखक ने चार्ली के कलाकर्म की कुछ मूलभूत विशेषताओं को रेखांकित किया है। चार्ली चैप्लिन के जन्मशती के वर्ष ही उनकी पहली फिल्म ‘मेकिंग ए लिविंग’ के 75. वर्ष पूरे होते हैं। पौन शताब्दी से लेकर पाँच पीढ़ियों तक चार्ली चैप्लिन की कला मुग्ध करती आ रही हैं। उनकी कला समय, भुगोल और संस्कृतियों की सीमाओं से खिलवाड़ करता हुआ आज भी लाखों बच्चों को हँसा रहा है। पश्चिम में तो बार बार चार्ली का पुनजीवन हो रहा है। चैप्लिन की कुछ फिल्में या इस्तेमाल न की गई रोले भी मिलती है। | जिसके बारे में कोई नहीं जानता। चार्ली की फिल्में बुद्धि पर नहीं भावनाओं पर टिकी | होती हैं। मेट्रोपोलिस दी कैबिनेट ऑफ़ डाक्टर कैलिगारी, द रोवंध सील, लास्ट इयर इन मारिएन बाड़, द सैक्रिफाइस उनकी बेहतरीन फिल्में है। उनके फिल्मों की खासियत यह थी कि उनकी फिल्में पागलखाने के मरीजों से लेकर आइन्टाइन जैसे महान प्रतिभा वाले व्यक्ति भी रसास्वादन के साथ देखते है। उनकी फिल्में न केवल कला को लोकतांत्रिक | बनाया बल्कि दर्शकों की वर्गव्यवस्था को भी तोड़ा। अपनी नानी की तरफ से चैप्लिन खानाबदोशों से जुड़े हुए थे, वहीं अपने पिता की तरफ से वे यहूदीवंशी थे। इस जटिल | परिस्थितियों ने उनके चरित्र को बाहरी तथा घुमतूं’ बना दिया। उन्होंने अपने फिल्मों में अपनी प्रिय छवि ‘ट्रैम्प’ (बट्टू, खानाबदोश, आवारगर्द) को प्रस्तुत किया हैं।
चार्ली के फिल्मों को केवल फिल्म समीक्षकों ने ही नहीं बल्कि फिल्म कला के उस्तादों और मानविकी के विद्वानों ने सराहा है। चार्ली ने बुद्धि की जगह कला के लिए भावना को चुना। बचपन की दो घटनाएं चार्ली पर गहरा प्रभाव डालती है। एक बार जब वे बीमार थे तब उनकी मां ने उन्हें ईसामसीह का जीवन बाइबिल से पढ़कर सुनाया था। | ईसामसीह के सूली पर चढ़ने का प्रसंग आते आते माँ और चार्ली दोनों रोने लगे। चैप्लिन ने अपने आत्मकथा में लिखा है- ‘ओकले स्ट्रीट के तहखाने के उस अंधियारे कमरे में मां ने मेरे सामने संसार की वह सबसे दयालु ज्योति उजागर की जिसने साहित्य और नाट्य को उनके महानतम और समृद्धतम विषय दिए है स्नेह, करुणा और मानवता ।”
दूसरी घटना यह थी कि ‘बचपन में चार्ली जहां रहते थे वहीं पास एक कसाईखाना था। एक बार कसाईखाना से एक भेड़ भाग निकला। उसे पकड़ने वाले उसका पीछा करते हुए कई बार फिसले, गिरे और ठहाके लगाने लगे। परंतु अंत में उन्होंने भेड़ पकड़ लिया। और कसाई के पास भेड़ को ले जाने लगे तो चार्ली को बहुत दुख हुआ। वे रोने लगे। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है बसंत की वह बेलौस दोपहर और वह मजाकिया दौड़ कई दिनों तक मेरे साथ रही और मैं कई बार सोचता हूं कि उस घटना ही ने तो कहीं मेरी भावी फिल्मों की भूमि तय नहीं कर दी थी- त्रासदी और हास्योत्पादक तत्वों के सामंजस्य की।’
भारत में चैप्लिन के कला का एक ही सौंदर्यशास्त्रीय महत्व हैं। भारतीय जनमानस पर उनके कला का जो प्रभाव पड़ा है, उसका पर्याप्त मूल्यांकन होने लगा है। भारतीय जनता ने उनकी फ़िल्मों में हास्य का करुण तथा करुणा का हास्य में बदल जाने के ‘फिनोमेनन्’ को वैसे ही स्वीकार किया जैसे बत्तख पानी को स्वीकारती है।
समाज में कुछ ही लोगों को ‘ दिलीप कुमार’ या ‘ अमिताभ बच्चन’ कहकर ताना देते हैं, जबकि परिस्थितियों के औचित्य देखते हुए किसी भी व्यक्ति को जानी वाँकर कहा जाता है। अतः कहा जा सकता है कि हमारे बीच ‘नायक’ कम है, जबकि हर व्यक्ति दूसरे को कभी न कभी विदूषक समझता है। मनुष्य स्वयं ईश्वर का विदूषक, क्लाउन, जोकर या साइड-किक है। महात्मा गाँधी और नेहरू दोनों ने चार्ली का सानिध्य चाहा था।
‘आवारा फिल्म’ ‘दि ट्रेम्प’ का शब्दानुवाद ही नहीं था बल्कि चार्लीी का भारतीयकरण ही था। हिंदी फिल्म अभिनेता में राजकपूर ने सबसे पहले चार्ली का अनुकरण किया। इसके बाद दिलीप कुमार, देवआनंद, शम्मी कपूर, अमिताभ बच्चन तथा श्रीदेवी तक उसी मार्ग का अनुशरण करते दिखाई पड़े। सन 1953-57 के बीच जब चैप्लिन अपनी | गैर-ट्रेम्पनुमा अंतिम फिल्में बना रहे थे तब राजकपूर उनका युवा अवतार ले रहे थे।
चार्ली की अधिकतर फिल्मों में भाषा का प्रयोग नहीं किया अत: उन्हें ज्यादा से ज्यादा मानवीय होना पड़ा। चार्ली का चिरयुवा या बच्चों की तरह दिखना एक विशेषता थी ही | साथ उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे किसी भी संस्कृति में विदेशी नहीं लगते। भारत में चालों का महत्व यह है कि वह अंग्रेज जैसे व्यक्तियों हँसते है। चार्ली स्वयं पर तब हँसता है, जब वह स्वयं को गर्वोन्मत, आत्मविश्वास से लबरेज, दूसरों से ज्यादा शक्तिशाली तथा क्षण में दिखलाता है। लेखक कहते हैं, हम अपने जीवन के | अधिकांश हिस्सों में चालों के टिली ही होते हैं। हम चार्ली ही है, क्योंकि हम सुपरमैन नहीं हो सकते।
प्रश्नोत्तर
1. लेखक ने ऐसा क्यों कहा है कि अभी चैप्लिन पर करीब 50 वर्षों तक काफी कुछ जाएगा?
उत्तर: हास्य फिल्मों के महान अभिनेता और निर्देशक चार्ली चैप्लिन पर लिखे गए इस पाठ में लेखक ने चार्ली के कलाकर्म की कुछ मूलभूत विशेषताों को रेखांकित किया है। दो महायुद्धों के बाद विश्व सिनेमा ने जिस कौशल से नव-स्वतंत्र देशों का नैतिक भूगोल, औपनिवेशिक दासता का मानसिक अवक्षेपन आदि विषयों को बिंबित किया है, उसके विकास में चैप्लिन का बहुत बड़ा योगदान है। उस समय से ही चैप्लिन की कला दुनिया के सामने है और पाँच पीढ़ियों को मुग्ध कर चुकी है। आज भी चार्ली की फिल्में लाखों भारतीय बच्चों को हँसा रही हैं। इतना ही नहीं वे इन्हें अपने बुढ़ापे तक याद भी रखेंगे। पश्चिम में तो बार-बार चार्ली का पुनर्जीवन हो रहा है। चार्ली चैप्लिन की ऐसी कुछ फिल्में या इस्तेमाल न की गई रीलें भी मिलती हैं जिनके बारे में कोई जानता नहीं था। अत: उनकी विश्व सिनेमा में जो महत्वपूर्ण योगदान रहा हैं, उसको देखते हुए लेखक ने कहा है कि अभी चैप्लिन पर करीब 50 वर्षों तक काफी कुछ जाएगा।
2. चैप्लिन ने न सिर्फ फिल्म कला को लोकतांत्रिक बनाया बल्कि दर्शकों की वर्ग तथा वर्ण-व्यवस्था को तोड़ा। इस पंक्ति में लोकतांत्रिक बनाने का और वर्ण व्यवस्था तोड़ने का क्या अभिप्राय है? क्या आप इससे सहमत हैं?
उत्तर: चैप्लिन के फिल्म जगत में आने से पहले फ़िल्मों को एक वर्ग विशेष के लिए बनाया जाता था। लेकिन चैप्लिन ने अपनी फिल्मों में एक आम आदमी का प्रतिनिधित्व किया। वास्तविक अर्थ में उन्होंने फिल्म कला को लोकतांत्रिक बनाया। इतना ही नहीं उस समय लोगों के बीच जो वर्ण और वर्ग व्यवस्था थी उसे भी उन्होंने अपनी फिल्मों द्वारा तोड़ा। यहीं कारण है कि उनकी किमों को पागलखाने के मरीजों, विकल मस्तिष्क लोगों से लेकर आइन्स्टाइन जैसे महान प्रतिभा वाले व्यक्ति तक कहीं एक स्तर पर और सूक्ष्मतम रसास्वादन के साथ दिख पड़े है। चैप्लिन ने अपनी फिल्मों द्वारा यह दिखाने की कोशिश की है कि राजा और प्रजा दोनों एक समान है।
3. लेखक ने चार्ली का भारतीयकरण किसे कहा और क्यों? गाँधी और नेहरू ने भी उनका सान्निध्य क्यों चाहा?
उत्तर: चार्ली चैप्लिन की फिल्मों से लोग काफी प्रभावित हो रहे थे, उनकी फिल्में लाखों भारतीय बच्चों को हँसा रही थी। चार्ली के नितांत ही अभारतीय सौंदर्यशास्त्र को इतनी व्यापक स्वीकृति देखकर राजकपूर ने भी भारतीय फिल्मों में सबसे पहले एक साहसिक प्रयोग किया। राजकपूर की फिल्म ‘आवारा’ चैप्लिन की फिल्म ‘दि ट्रेम्प’ का शब्दानुवाद ही नहीं बल्कि चार्ली का भारतीयकरण भी कहा जा सकता है।
लेखक ने राजकपूर की फिल्मों को चाल का भारतीय करण इसलिए भी कहा है, क्योंकि उनके ‘श्री420’, ‘आवारा’ के पहले फिल्मी नायकों पर हँसने की और स्वयं नायकों के अपने पर हँसने की परंपरा नहीं थी।
गाँधीजी तथा नेहरू चार्ली चैप्लिन की फिल्मों से काफी प्रभावित थे। समाज में कुछ लोगों को ‘ अमिताभ बच्चन’ या ‘ दिलीप कुमार’ कहकर ताना दिया जाता हैं, जबकि किसी भी व्यक्ति को परिस्थितियों का औचित्य देखते हुए ‘चार्ली’ या ‘जानी वॉकर’ कहा जाता, है। वास्तव में यह एक स्वीकारोक्ति है कि हमारे बीच नायक कम हैं जबकि हर व्यक्ति दूसरे को विदूषक समझता हैं। चार्ली ने अपनी फ़िल्मों में यह दिखाया है, कि मनुष्य स्वयं ईश्वर या नियति का विदूषक, क्लाउन, जोकर या साइड-किक है। चार्ली ने कला को जो सार्वजनिकता प्रदान किया था, उससे नेहरू तथा गाँधी दोनों ही प्रभावित थे। अतः दोनों ने चार्ली का सानिध्य चाहा था।
4. लेखक ने कलाकृति और रस के संदर्भ में किसे श्रेयस्कर माना है और क्यों ? क्या आप कुछ ऐसे उदाहरण दे सकते हैं, जहाँ कई रस साथ-साथ आए हों?
उत्तर: लेखक ने कलाकृति और रस में से रस को श्रेयस्कर माना हैं। रसों का कलाकृति के साथ पाया जाना श्रेयस्कर माना है। लेखक ने इसे श्रेयस्कर इसलिए माना हैं, क्योंकि आ जीवन में जिस प्रकार हर्ष और विषाद आते रहते है, उसी प्रकार कलाकृति में भिन्न रसों का होना आवश्यक है। भारतीय परंपराओं में करुणा का हास्य रस में परिवर्तित हो जाना नहीं दि मिलता है। रामायण और महाभारत में जो हास्य रस का प्रयोग हुआ है, वह ‘दूसरो’ पर है। और करुणा है, वह सद्व्यक्तियों या कभी-कभार दुष्टों के हुआ है। संस्कृत नाटकों में भी करुणा और हास्य रसों का सामंजस्य नहीं मिलता है। कई रसों का एक साथ आना कलाकृति को और भी मनमोहक बना देता है।
हमारे दैनिक जीवन में ऐसी कई घटनाएं घटित होती रहती है, जो कई रसों से परिपूर्ण होती है। कुछ उदाहरण नीचे दिए जा रहे है। एक बार हमारे स्कूल की ही आठवीं और नवीं • कक्षा के छात्रों के बीच क्रिकेट मैच चल रहा था। खेल पूरे रोमांच पर था। नवीं कक्षा के E छात्रों को जीतने के लिए चार रनों की आवश्यकता थी। सभी उन्हें उत्साहित कर रहे थे। तभी आठवीं कक्षा के छात्र ने आखिरी बोल फेंकी जो बल्ले में न लगकर बल्लेबाज के सिर पर लगी। गेंद इतनी जोरो से लगी की उसका सिर खून से लथपथ हो गया था। अचानक पूरा माहौल बदल गया। उसे अस्पताल पहुंचाया गया।
5. जीवन की जद्दोजहद ने चार्ली के व्यक्तित्व को कैसे संपन्न बनाया?
उत्तर: जीवन में चार्ली को कई जद्दोजहद से गुजरना पड़ा। एक परित्यकता दूसरे दर्जे की स्टेज अभिनेत्री का बेटा होना, उसके बाद भयावह गरीबी से सामना करना पड़ा। उसके बाद उनकी माता के पागलपन से संघर्ष करना सम्राज्य, औद्योगिक क्रांति, पूंजीवाद तथा सामंतशाही से मगरूर समाज द्वारा दुरदुराया जाना इन सभी परिस्थितियों से चैप्लिन को वे जीवनमूल्य मिलें जो करोड़पति हो जाने के बावजूद भी अंत तक उनमें रहे। इन्हीं विषम परिस्थितियों ने उनके व्यक्तित्व को संपन्न बनाया।
6. चार्ली चैप्लिन की फिल्मों में निहित त्रासदी करुणा / हास्य का सामंजस्य भारतीय कला और सौंदर्यशास्त्र की परिधि में क्यों नहीं आता?
उत्तर : कई रसों का सामंजस्य एक साथ होना भारतीय कला और सौंदर्यशास्त्र की परिधि में नहीं आता है। महाभारत और रामायण में जो हास्य है वह दूसरों पर हैं। संस्कृत नाटकों में भी करुणा और हास्य का सामंजस्य नहीं मिलता है। अपने ऊपर हँसने और दूसरों में भी वैसा ही माद्वा पैदा करने की शक्ति भारतीय विदूषक में कुछ कम ही नजर आती है। अत: भारत में उनके इतने व्यापक स्वीकार का एक अलग सौंदर्यशास्त्रीय महत्व हैं।
7. चार्ली सबसे ज्यादा स्वयं पर कब हँसता है?
उत्तर: चार्ली स्वयं पर सबसे ज्यादा तब हँसता है, जब वह स्वयं को गर्वोन्मत, आत्मविश्वास से लवरेज, सफलता, सभ्यता, संस्कृति तथा समृद्धि की प्रतिमूर्ति, दूसरों से सों का ज्यादा शक्तिशाली तथा श्रेष्ठ अपने ‘बज्रादपि कठोराणि’ अथवा मृदुनि कुसुमादपि क्षण में ना नहीं दिखलाता है।
8. चार्ली चैप्लिन यानी हम सब’ के लेखक कौन है?
उत्तर: ‘चार्ली चैप्लिन यानी हम सब’ के लेखक विष्णु खरे है।
9. चार्ली चैप्लिन कौन हैं?
उत्तर: चार्ली चैप्लिन हास्य फिल्मों के महान अभिनेता तथा निर्देशक है।
10. चालीं के व्यापक स्वीकृति देख किस भारतीय अभिनेता ने सबसे पहला साहसिक प्रयोग किया?
उत्तर: राजकपूर ने।
11. राजकपूर के कुछ फिल्मों के नाम बताये जिनमें चार्ली के फिल्मों का अनुकरण, किया गया हो?
उत्तर: आवारा, दि ट्रेम्प।
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