AHSEC Class 12 Hindi (Mil) Notes
☆CHAPTER: 15☆
शिरीष के फूल
Chapter – 15
काव्य खंड
लेखक परिचय: हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म बलिया (उत्तर प्रदेश) मण्डलान्तर्गत दुबे छपरा नामक गाँव में सन १९०७ ई० में हुआ। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के पाठशाला में हुई उच्च शिक्षा के लिए ये वाराणसी चले गये। काशी हिन्दु विश्वविद्यालय से इन्होंने ज्योतिष विषय में आचार्य की उपाधि प्राप्त की। हिन्दी साहित्य से इनका स्वाभाविक लगाव था। इनकी विद्वता के कारण लखनऊ विश्वविद्यालय ने इन्हे डी० लिट् की उपाधि से अलंकृत किया। ये शान्ति निकेतन हिन्दी भवन में निर्देशक तथा काशी हिन्दू विश्वविद्याल में हिन्दी के प्रोफेसर तथा अध्यक्ष थे। हजारी प्रसाद द्विवेदी अकेले उपन्यासकार हैं। जिन्होंने हिन्दी उपन्यास का स्वदेशी ढाँचा खोजा है। आचार्य द्विवेदी का साहित्य कर्म भारतवर्ष के सांस्कृतिक इतिहास की रचनात्मक परिणति है। वे ज्ञान को बोध और पाडित्य की सहृदयता में ढाल कर एक ऐसा रचना संसार हमारे सामने उपस्थित करते हैं, जो विचार की तेजस्विता, कथन के लालित्य और बंध की शास्त्रीयता का संगम है। सन् १९४०-४६ तक अभिनवभारती ग्रंथमाला का संपादन भी कलकत्ते से किया। वही १९४०-४७ तक विश्वभारती पत्रिका का सम्पादन तथा १९४८-५० तक हिन्दी भवन विश्वभारती के संचालक भी रहे। १९५०-५३ तक विश्वभारती विश्वविद्यालय की एकजीक्यूटिव कॉउन्सिल के सदस्य रहे। वही १९८२-८३ में काशी नागरी प्रचारणी सभा के अध्यक्ष भी रहे। नौकरी से अवकाश ग्रहण के बाद वे भारत सरकार की हिन्दी विषयक अनेक योजनाओं से संबंध रहे। उनका निधन १९ मई १९७९ ई० को दिल्ली में हुआ।
प्रमुख रचनाएँ: अशोक के फूल, कल्पलता, विचार और वितर्क, प्रवाह, आलोक पर्व, प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद (निबंध-संग्रह), वाणभट्ट की आत्मकथा, चारूचंद्रलेख, पुनर्नवा, अनामदास का पोथा (उपन्यास), सूर साहित्य, कुटज, विचार कबीर, भध्यकालीन बोध का स्वरूप, नाथ सम्प्रदाय, कालिदास की लालित्य योजना,हिन्दी साहित्य का आदिकाल, हिन्दी साहित्य की भूमिका, हिन्दी साहित्य: उद्भव और विकास (आलोचना, साहित्येतिहास), संदेश रासक, पृथ्वीराजरासो, नाथ-सिध्दों को बातियाँ (ग्रंथ-सम्पादन), विश्वभारती (शांति निकेतन) पत्रिका का संपादन। हजारी प्रसाद त्विवेदी को आलोक वर्ष पर साहित्य अकादेमी, भारत सरकार द्वारा ‘पदमभूषण’ तथा लखनऊ विश्वविद्यालय द्वारा डी लिट् उपाधि से सम्मानित किया गया।
साराश
प्रस्तुत ललित निबन्ध ‘शिरीष के फूल’ हजारी प्रसाद द्विवेदी के संग्रह कल्पलता से उद्धृत किया गया है। इसमें लेखक आँधी, लू और गरमी की प्रचंड़ता में भी अवधूत की तरह अविचल होकर कोमल पुष्पों का सौन्दर्य बिखेर रहे शिरीश के माध्यम से मनुष्य की अजेय जिजीविषा और तुमुल कोलाहल कलह के बीच धैयेपूर्वक, लोक के साथ चिंतारत, कर्तव्यशील बने रहने को महान मानवीय मूल्य के रूप में स्थापित करता है। जेठ महिने की चिलचिलाती धूप में जब धरती अग्निकुण्ड सी बनी रहती है, तब भी शिरीष के पेड़ फूलो से लदे नज़र आते हैं। मानों जलती धूप का असर शिरीष पर कोई प्रभाव ही नहीं डालना है। इस प्रकार की गरमी में प्राय: कोई फूल नहीं खिलता। आरग्वध (अमलतास) केवल पन्द्रह-बीस दिनों के लिए फूलता है वसन्त के आगमन है के साथ ही यह लहक उठता है और आषाढ़ तक पूरी तरह मस्ती में खिलता रहता है। कभी-कभी तो भादाँ माह में लिखता हुआ देख सकते हैं। जब उमस से प्राण उबलता। रहता है और लू से हृदय सूखता रहता है, एकमात्र शिरीष कालजयी अवधूत की भाँति जीवन की अजेयता का मंत्र प्रचार करता रहता है। शिरीष के पेढ़ बड़े छायादार होते है। पुराने समय में भारतीय रईस अपनी वृक्ष वाटिका की चार दीवारी के पास जिन वृक्षों को लगाया करता था उनमें शिरीष भी होता था। इसको डालें अपेक्षाकृत कमजोर होती है, इस पर हल्के झूलें लगाये जा सकते हैं। संस्कृत साहित्य में शिरीष का फूल बहुत कमजोर माना गया है। कालिदास ने शिरीष पुष्प के बारे में कहा है कि यह केवल भौरों का कोमल दबाव तो सहन कर सकता है। परन्तु पाक्षियों का नहीं। शिरोष पुष्प तो कोमल होता है किन्तु इसके फल बहुत मजबूत है कि नये फूलों के निकल आने पर भी स्थान नहीं छोड़ते। वसन्त के आगमन के समय सारी वनस्थली पुष्प पत्र से उच्च्छादित होती है, शिशीष के ये पुराने फल बुरी तरह खड़खड़ाते रहते हैं। इन्हें देख उन नेताओं का स्मरण हो आता है जो जमाने का रूख नहीं पहचानते और जबतक नई पौध के लोग उन्हें धक्का मारकर निकाल नंली देते जमें रहते हैं।
लेखक कहते हैं कि शिरीष उन्हें एक अवधूत लगता है। क्योंकि दुःख लो या सुख, वह घर नहीं मानता। इसे किसी से लेना-देना नहीं है। जब धरती और आसमान गरमी में। जलते रहते हैं, सबी पेड़ झूलस जाते है परन्तु शिरीष मादक और सरस ही दिखाई पड़ता है। कबीर बहुत कुछ इस शिरीष की तरह दी थे मस्त, बेपरवाह पर सरस और मादक। एक बार राजा दुष्यन्त ने शकुन्तला का सुन्दर चित्र अंकित किया पर उन्हें चित्र में कोई कमी खटकती रही। फिर स्मरण आया कि शकुन्तला के कानों में वे शिरीष का फूल देना भूल गये जिसके कारण उनका सौन्दर्य फीका लग रहा है। शिरीष का पेढ़ लेखक के मन में पक्के अवधूत की भाँति तरंगे जागृत कर देता है जो ऊपर की और उठती रहती हैं। लेखक शिरीष की तुलना महात्मा गाँधी से करता है, कि शिरीष वायुमण्डल से सर खींचकर इतना कोमल और इतना कटोर हैं गाँधी की इसी प्रकार हर परिवर्तन में इतना कोमल और इतना कठोर हो सका था। शिरीष को देखकर लेखक के मन में रह रहकर हक उठती है कि वह गाँधी आज कहाँ हैं?
प्रश्नोत्तर
1. लेखक ने शिरीष को कालजयी अवधत (सन्यासी) की तरह क्यों माना है?
उत्तर: लेखक ने शिरीष को कालजयी अवधूत की तरह माना है। इसका कारण यह है कि जब सारी दुनिया गरमी से त्रस्त तथा सारा वातावरण उमस एवं लू से त्राहि-त्राहि कर रहा होता है। मनुष्य जब इस भयानक गर्मी से बचने का हर संभव प्रयास करता है। जेठ की जलती धूप में जब धरती अग्निकुंड बन जाती है तथा लू से हृदय सूखने लगता है तब शिरीष नीचे से ऊपर तक फूलों से लदा होता है। जिसप्रकार अवधूत को आँधी, लू और गरमी की प्रचंड़ता विचलीत नहीं कर सकती हैं। ठीक उसी प्रकार शिरीष भी आँधी, लू और गरमी को प्रचंड़ता में भी अवधूत की तरह अविचल होकर कोमल पुष्पों का सौन्दर्य विखेरता रहता है। दुख हो या सुख वह कभी घर नहीं मानता।
2. हृदय की कोमलता को बचाने के लिए व्यवहार की कठोरता भी कभी-कभी जरूरी हो जाती है – प्रस्तुत पाठ के आधार पर स्पष्ट करें।
उतर: लेखक कहते हैं कि हृदय को कोमलता को बचाने के लिए व्यवहार को कठोरता भी कभी-कभी जरूरी हो जाती है। लेखक कहते हैं, कि हमारे देश के ऊपर से जो मार-काट, अग्निदाह, लूट-पाट, खून खच्चर का बपर्डर वह गया है, उसके भीतर स्थिर रहना कठिन है परन्तु शिरीष भी गाँधी जी की ही भाँति स्थिर रह सका है। जेठ की चिलचिलाती धूप में जब धरती सूख जाती हैं, तब शिरीष कोमल फूलों से लदा होता है। लेखक कहते हैं कि शिरीष वायुमंडल से सर खीचकर इतना कोमल और इतना कठोर हो सका हैं। ठीक उसी तरह जिसतरह गाँधी जी ने वायुमंडल से रस खींचकर इतना कोमल और कटोर हो सके थे।
3. द्विवेदी जी ने शिरीष के माध्यम से कोलाहल व संघर्ष से भरी जीवन-स्थितियों में अविचल रह कर जिजोविषु बने रहने की सीख दी है। स्पष्ट करें।
उत्तरः शिरीष आँधी, लू और गरमी की प्रचड़ता में भी अवधूत की तरह अविचल होकर कोमल पुष्पों का सौन्दर्य विखेरेते रहते है। इन कोमल पुष्पों के जरिए मानों शिरीष यह संदेश देना चाहत हैं कि कोलाहल व संघर्ष भरी जीवन स्थितियों में अविचल रह कर मनुष्य जिजीविषु बने। शिरीश के माध्यम से लेखक मनुष्य को अजेय जिजीविषा और तुमुल कोलाहल कलह के बीच धैर्यपूर्वक लोक के साथ चिंतारत, कर्तव्यशील बने रहने को महान मानवीय मूल्य के रूप में स्थापित करता है।
4. हाय, वह अवधूत आज कहाँ है। ऐसा कहकर लेखक ने आत्मबल पर देह-बल के वर्चस्व की वर्तमान सभ्यता के संकट की और संकेत किया है? कैसे?
उत्तरः त्विवेदी जी ने देह-बल के ऊपर आत्मबल का महत्व सिद्ध करने वाली इतिहास विभूति गाँधीजी को याद किया है। वर्तमान समय में गाँधीवादी मूल्यों के अभाव की पीड़ा से त्विवेदी जी कसमसा उठते हैं। वर्तमान समय में देश में मार-काट, अग्निदाह, लूट-पाट, खून खच्चर का जो माहौल बना हुआ हैं, उससे सामना करने के लिए देह बल की नहीं आत्मबल की आवश्यकता है। वर्तमान परिस्थिती से लड़ने के लिए हमें गाँधीवादी मूल्यों की आवश्यकता है।
5. कवि (साहित्यकार ) के लिए अनासक्त योगी की स्थिर पज्ञता और विदग्ध प्रेमी का हृदय-एक साथ आवश्यक है। ऐसा विचार प्रस्तुत कर लेखक ने साहित्य कर्म के लिए बहुत ऊँचा मानदंड निर्धारित किया हैं। विस्तारपूर्वक समझाएँ।
उत्तर: त्विवेदी जी के अनुसार योगी की अनासक्त शून्यता और प्रेमों की सरस पूर्णता एक साथ उपलब्ध होना सत्कवि की एकमात्र शर्त होती हैं। लेखक कहते हैं, केवल तुक जोड़ लेने या हन्द बना लेने से कवि या साहित्यकार नहीं हो सकता हैं, जब तक अनासप योगो की स्थिरता और विदग्ध प्रेमीका सा हृदय कवि का न हो तब तक सुकव नहीं कहल अ सकता हैं।
6. सर्वग्रासी काल की मार से बचते हुए वही दीर्घजीवी हो सकता है, जिसने अपने व्यवहार में जड़ता छोड़कर नित बदल रही स्थितियों में निरंतर अपनी गतिशीलता बनाए स्री है। पाठ के आधार पर स्पष्ट करें।
उत्तरः गतिशीलता जीवन के लिए अनिवार्य है। दीर्घजीवी बनने के लिए आवश्यक है अपने व्यवहार में जाये जड़ता छोड़कर नित बदल रही स्थितियों में निरंतर अपनी गतिशीलता को बनाए रखना। जो व्यक्ति जड़ता को अपनाकर एक स्थान पर स्थिर बने रहते है और यह समझते है कि सर्वग्रासी काल की मार से बच जाएंगे वे मूर्ख हैं। मूर्ख समझते हैं कि देर तक अगर किसी स्थान पर बने रहे तो महाकालदेवता की आँख बच जाएंगे। महाकाल देवता र समय कोड़े चला रहे हैं, जिनसे जीर्ण और दुर्बल नहीं बच पा रहे है। परन्तु जो हिलते-डुलते रहते हैं, स्थान परिवर्तन करते अर्थात जो जीवन में गतिशीलता लाते हैं, जिनके प्राणकण थोड़ा भी ऊर्ध्वमुखी हैं, वे दीर्घजीवी हो सकते है।
7. आशय स्पष्ट कीजिए:
क) दुरतं प्रामधारा और सर्वत्यापक कालाग्नि का संघर्ष निरंतर चल रहा है। मूर्ख, कि समझते है कि जहाँ बने है, वही देर तक बने रहें तो कालदेवता की आँख बचा पाएँगे। हो भोले है वे । हिलते-डुलते रहों, स्थान बदलते रहो, आगे की और मुँह किए ररो तो कोई बा की मार से बच भी सकते हो। जमे कि मरे।
उत्तर: दुरंत प्राणधारा और सर्वव्यापक कालाग्नि का संघर्ष हमेषा चलते रहता है। अतः गतिशीलता दीर्घजीवी होने का एकमात्र शर्त हैं। कालदेवता की आँखो से बच पाना बहुत मुश्किल है। मूर्ख समझते हैं, देर तक अगर एक स्थान पर बने रहे तो वो सर्वग्रासी काल को मार से बच जायेंगे। परन्तु वे भोले हैं। सच तो यह है हिलते डुलते रहने पर, स्थान बदलते रहने पर इस मार से बचा जा सकता हैं। जिनमें प्राण्डण थोड़ा भी ऊर्ध्वमुखी हैं, जो सदैव आगे की और मुहं किए रहते हैं, वहीं इस कोड़े की मार से बच जाते हैं। तथा दीर्घजीवी बन जाते हैं।
ख) जो कवि अनासक्त नहीं रह सका, जो फक्कड़ नहीं बन सका, जो किए कराए का लेखा-जोखा मिलाने में उलझ गया, वह भी क्या कवि है? कहता हूं कवि बनना है मेरे दोस्तो, तो फक्कड़ बनो।
उत्तर: द्विवेदी जी ने सत्कवि के लक्षण की और संकेत किया हैं। वहीं हृदय, मन एक अन्तर्भेदी कवि हो सकता है जो आसक्ति के बंधनों को तिलांजलि दे चुका हो और बिल्कुल अनासक दी गया हो। उसका मन, वचन और कर्म पूरी तरह फक्कड़पन को अपना चुका हो। उसकी काल्पनिक उड़ाने ही वह स्तर प्राप्त कर सकती दे तो किसी सफल कवि के लिए न्यायमत दुटा सकती है। आशक्ति के घेरे से बाहर दिल से फक्कड़ मस्तमौला कवि ही साहित्य और समाज को वह विधि दे सकता है जो सदियों तक अनुपम और नवीन बना रह सकता है। दूसरी और जो कवि सदैव अपने ही साहित्यिक कार्यों का ही मूल्यांकन करने मैं ही उलझा रहे, वह सरी अर्थ में कभी कवि नहीं बन सकते। समाज और साहित्य उसने किसी प्रकार लाभान्वित नहीं हो पायेंगे। ऐसे कवि से साहित्य या समाज किसी भी प्रकार रस नहीं मिलेगा। कवि वह भावना है, वह काल्पनिक उपज दे जो कवि के अन्तःस्थल से रस जैसा स्वतः टपकती है। अतः द्विवेदी जो कहते हैं कि कवि बना है तो सबसे पहले फक्कड़ बनना आवश्यक है।
ग) फूल हो या पेड़, वही अपने-आप में समाप्त नहीं है। वह किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए उठी हुई अंगुली है। वह इशारा है।
उत्तरः कोई भी वस्तु अपने आप में समाप्त नही होती है। चाहे वह फूल ही या पेड़। ठीक उसी प्रकार सुन्दरता भी अपने आप में समाप्त नहीं होता हैं। कोई भी शिल्पकला कितना भी सुन्दर क्यो न ही वह यह नहीं कहता है कि हममें आकर ही सारा रास्ता समाप्त हो गया। वह हमेशा यही संकेत करता है, कि असल गंतव्य स्थान उसे अतिक्रम करने के बाद ही है। वह किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए उठी हुई अँगुली हैं। वह एक इशारा है।
8. ‘शिरीष के फूल’ शीर्षक लेख के रचयिता कौन है?
उत्तर: ‘शिरीश के फूल’ शीर्षक लेख के रचयिता हजारी प्रसाद द्विवेदी।
9. किस साहित्य में शिरीष का फूल प्राण डाले हुए है?
उत्तरः संस्कृत साहित्य में ‘शिरीष का फूल’ प्राण डाले हुए है।
10. शिरीष का फूल कब फूलता है?
उत्तरः शिरीष गरमी के दिनों में जेठ माह से लेकर भाद मास तक फूलता है। पर, यह बंसत में खिलता है।
11. शिरीष के फूल और फल में क्या अन्तर है?
उत्तरः शिरीष के फूल बहुत ही कोमल होते हैं, वही इसके फल बड़े कठोर और मजबूत होते हैं। इसके फल नये फूलों के निकल आने पर भी नहीं गिरते।
12. शिरीष के फूल शीर्षक लेख में लेखक ने पुराने नेताओं के सम्भन्ध में क्या कहा है?
उत्तरः लेखक ने शिरीष के फूल से पुराने नेताओ की तुलना की हैं। पुराने नेताओ की अपने गद्दी के प्रति आसक्ति होती हैं। जो जलदी हटना नही चाहते हैं। ये तबतक अपने जगह पर बने रहते हैं। जब तक नई पीढ़ी के लोग इन्हें धक्का मारकर हटा नहीं देते।
13. गरमी के दिनों में अन्य खिलने वाले फूलों के क्या नाम है?
उत्तरः कर्णिकार, ओरग्बेध।
14. जगत के अति परिटित और अति प्रमाणिक सत्य क्या हैं?
उत्तरः जगत के अति परिचित और अति प्रमाणिक सत्य है बुढ़ापा और मृत्यु ।
15. लेखक ने शिरीष को अवधूत क्यों कहा हैं?
उत्तरः क्योंकि शिरीष भी दुःख हो या सुख कभी हार नहीं मानता।
16. शकुन्तला लेखक के अनुसार कहाँ से निकली थी?
उत्तरः शकुन्तला कालीदास के हृदय से निकली।
17. लेखक के हृदय में कैसी हूक उठती है?
उत्तर: लेखक के हृदय में हूक उठती है कि महात्मा गाँधी आज कहाँ है।
18. परन्तु नितान्त ठूंठ भी नही हूँ यहाँ लेखक क्या कहना चाहता है?
उत्तरः लेखक यह कहना चाहता है, कि वे बिल्कुल हृदयहीन नहीं है कि वह फूल पौधों को देख कर भी उमंग अनुभव न करें।
19. जीवन की अजेयता का मंत्र कौन प्रचार करता है और कैसे?
उत्तर: जीवन की अजेयता का मंत्र प्रचार शिरीष करता है। शिरीष गरमी में जब चारों और के बातावरण में धूप अपना ताण्डव मचाती है तब यग फूलता है और आषाढ़ तक मदमस्त बना रहता है। इस प्रकार गरमी और लू से त्रसित जीवन को शिरीष अजेयता का संदेश देता है।
20. प्राचीन भारत के रईसों की वाटिका की शोभा बढ़ाने वाले वृक्षों के नाम लिखे।
उत्तर: प्राचीन भारत के रईसों की वाटिका की शोभा बढ़ाने वाले वृक्षों में अशोक,अरिष्ट, पुन्नाग और शिरीष।
21. अपने देश का एक बूढ़ा रह सका था यहाँ बूढ़ा किसके लिए कहा गया है?
उत्तर: यहाँ बूढ़ा शब्द महात्मा गाँधी के लिए कहा गया।
व्याख्या कीजिए
1. जब उमस से प्राण उबलता रहता है और लू से हृदय सूखता रहता है, एक मात्र शिरीष कालजयी अवधूत भाँति जीवन की अजेयत्ता का मंत्र प्रचार करता रहता है।
उत्तरः प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य पुस्तक ‘आरोह’ के गद्य खण्ड के ‘शिरीष के फूल’ से ली गई है। इसके लेखक है हजारी प्रसाद त्विवेदी । यहाँ त्विवेदी जी ने गरमी के दिनों में खिलने वाले शिरीष के फूल को कालजयी अवधूत से तुलना किया है।
जब सारी दुनिया गरमी से त्रस्त तथा सारा वातावरण उमस तथा लू त्राहि-त्राहि कर रहा होता है। और मनुष्य इस भयानक गर्मी से बचने का हर संभव प्रसाय करता है। चिलचिलाती धूप । और उसके प्रकोप से हृदय तक सूखने लगता है। गरमी के कारण जब धरती अग्निकुण्ड बन जाती है, तब शिरीष का पेड़ अपने कोमल फूलों से लदा होता हैं। लेखक कहते है गरमी से शिरीष के फूलों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। जिस प्रकार आँधी, लू और गरमी की प्रचड़ता में अवधूत अविचलित होकर रहता है, उसी प्रकार शिरीष के पेड़ पर भी इन सब का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। गरमी की प्रचड़ता में भी अवधूत की तरह अविचल होकर कोलम पुष्य बिखेरता रहता है। उसके फूल हमें यह संदेश देते ले कि वह अजेय हैं, जीवन का विजय सब क्षेत्र में चिर सत्य है।
2. जो कवि अनाशत्क नहीं रह सका, जो फक्कड़ नहीं बन सका, जो किये कराये का लेखा-जोखा मिलाने में उलझ गया, वह भी क्या कवि है।
उत्तर: प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य पुस्तक आरोह के ‘गद्य खण्ड’ के ‘शिरीष के फूल’ से ली गई हैं। इसके लेखक है हजारी प्रसाद त्विवेदी जी यहाँ लेखक ने महान कवियों के वागवैदग्धता के वैषिष्टता का उल्लेख किया है।
लेखक कहने हैं, वही हृदय या मन एक सत्कवि हो सकता है, जो आसक्ति के बंधनों को तिलांजलि दे चुका हो। उसका मन पूरी तरह से फक्कड़ता को अपना चुका हो। आसक्ति के घेरे से बाहर दिल से फककड़ मस्तमौला कवि ही साहित्य और समाज को वह विधि दे सकता है जो सदियों के अनुपम और नवीन बना रह सकता है। दूसरी और जो कवि अनाशक्त नहीं बन पाते और अपने साहित्यिक कार्यों का हर समय मूल्यांकन करने में ही उलझा रहे, वह कभी सत कवि नहीं बन सकता है।
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